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Original Stories by Author (29-32)



This is a collection of Original Creation by Nilesh Mishra

कहानी 29:
एक समय की बात है, शकील मियां जो किसी विभाग में ग्रुप C कर्मचारी थे, और जो अपने अधिकारी श्रीमान धृतराष्ट्र को फूटी आंख भी नही सुहाते थे (भाव नही देते थे न), से 5 रुपये का Cello का सरकारी पैसे से खरीदा पेन गायब हो गया। धृतराष्ट्र साहब तो वैसे ही धरे बैठे थे, धर दिए Inquiry ये सोच कर कि थोड़ा बहुत परेशान करेंगे तो लाइन पे आ जाएगा और भाव देने लगेगा। खैर Enquiry अपने खास जांच अधिकारी श्रीमान शकुनि को , "बस डरा के छोड़ देना" , नसीहत के साथ हैंड ओवर किये। इसी बीच श्रीमान धृतराष्ट्र का कही और स्थानांतरण हो गया और अत्यंत सख्त मिजाज अधिकारी श्रीमान दुर्योधन आ गए, उन्हें खुश करने और अपनी ऊंची करने के लिए श्रीमान शकुनि ने शकील मियां के खिलाफ सरकारी धन का दुरुपयोग, सरकारी संपत्ति का क्षय और Doubtful Integrity की चार्जशीट दाखिल की। दुर्योधन साहब के उस क्षेत्र का यह पहला केस था और कर्मचारियों में उनकी दहशत कायम रहे, इसलिए उन्होंने इससे सख्ती से निपटने का फैसला करते हुए बिना पूरी पड़ताल किए Rule-14 दे दी । शकील मियां को प्रतिवर्ष की दर से 24000 का फ़टका लगा साथ ही आगे के प्रोमोशन की राह भी बंद हो गई। तो उन्होंने इस सजा के खिलाफ संविधान की धारा 323 के अंतर्गत Central Administrative Tribunal में विभाग के खिलाफ वाद दाखिल किया। 1 साल केस चला, वकील और वाद का खर्चा मिला कर विभाग का लगा 30,000 और शकील मियां के गए 20,000, फैसला शकील मियां के पक्ष में आया कि उनकी विभागीय सजा निरस्त कर दी जाए। बहरहाल काफी भागदौड़ के बाद भी केस के फैसले की कॉपी विभाग तक पहुचने में 1 साल और लग गए और तब तक दुर्योधन साहब की जगह अर्जुन साहब आ गए। केस तो शकील मियां के पक्ष में था लेकिन Cadre की एकता और प्रतिष्ठा का प्रश्न भी था, सो उन्होंने इस फैसले के खिलाफ राष्ट्रीय मुकदमा नीति -2010 का उल्लंघन करते हुए चंद्र कुमार वाद निर्णय के अनुसार हाईकोर्ट में अपील दायर की। हाइकोर्ट में पहले से ही लम्बित लगभग 9 लाख केसों में इस केस का नम्बर आने और final decision होने में 8 साल और लग गए और विभाग का लगभग 8 लाख और शकील मियां के 2 लाख खर्च होने के बाद पुनः फैसला शकील मियां के पक्ष में आया। तब तक कई अधिकारी आये और गए और शकील मियां का सर्विस रिकॉर्ड दागदार होने के कारण न उनकी तनख्वाह में उचित वृद्धि हुई और न ही प्रोमोशन मिला। बहरहाल फैसले की कापी विभाग में अपेक्षाकृत जल्दी मिल गई और नए निजाम साहब शकील मियां के पक्ष में कार्यवाही करते, इससे पहले श्रीमान शकुनि जी ने उन्हें सलाह दी "अब एक बार सुप्रीम कोर्ट का भी मत देख लीजिए तो कागज ज्यादा मजबूत रहेगा", और बात मान ली गई। पुनः 2 साल बाद , विभाग का 5 लाख और शकील मियां का 3 लाख खर्च होंने के बाद Apex कोर्ट से भी फैसला शकील मियां के पक्ष में ही आया और कोर्ट ने सारे बकाया चार्जशीट दाखिल करने की डेट से देने, वाद का पूरा खर्च देने और सारे प्रोमोशन देने का आदेश दिया । फैसले की कॉपी आने और नए आये युधिष्ठिर साहब द्वारा फैसले का क्रियान्वयन करने तक शकील मियां का रिटायरमेंट के दिन आ गया। सारा कुछ मिला के शकील मियां को 80 लाख के करीब भुगतान किया गया। विदाई समारोह में युधिष्ठिर साहब की उपस्थिति में शकील मियां की हंसते हुए रो रहे थे क्योंकि धन की क्षतिपूर्ति तो हो चुकी थी लेकिन गुजरे हुए वक़्त की नही।
--नीलेश मिश्रा
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कहानी 30:
यादव जी और वर्मा जी दोनों एक ही विभाग में Supervisor पोस्ट पे थे। यद्यपि दोनों same विभागीय परीक्षा पास करके Supervisor बने थे , तथापि दोनों पुराने कार्यानुभव के कारण उनके तरीकों में भिन्नता थी। यादव जी इसके पहले कई वर्ष प्रशासनिक कार्यस्थलों में काम किए थे, अतः Supervisory में भी, यद्यपि कार्यो का अधिक ज्ञान नही था फिर भी अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को हौंके रहते थे, घर कार्यस्थल के बिल्कुल निकट था, इसलिए प्रातः समय से 15 मिनट पहले ही पहुंच के अधिकारियों की अगवानी करना , अटेंडेंस रजिस्टर पर Cross लगाना, बाबुओ का स्पष्टीकरण मांगना, उसके बाद विभाग के लिए बिजनेस लाने की बात बताकर घर जा के दोपहर काटना, शाम को अधिकारियों के आगे स्टाफ की कमी का रोना और वर्मा जी की बुराई करना इत्यादि प्रमुख कार्यो में से एक था । यद्यपि सारे कर्मचारी उनसे त्रस्त थे और कार्यालय में आवश्यकता से अधिक स्टाफ और संसाधन होने के बावजूद कार्यालय का माहौल और बिजनेस दोनों down रहता था, तथापि अधिकारीगण सदैव प्रसन्न रहते थे, और भाईसाहब का सारा TA बिल, इन्सेन्टिव बिल इत्यादि समय पूर्व ही पास हो जाया करते थे। हद तो तब हो गई जब उनके एक्सीडेंट होने से पहले ही उनका मेडिकल बिल पास हो गया।
वहीं वर्मा जी हमेशा से Operational कार्यालयों में रहे थे, तो सारे दर्द पता थे, कार्यानुभव भी अच्छा था इसलिए अपने कर्मचारियों का फुल स्पोर्ट करते थे और उसके लिए क्या पब्लिक क्या अधिकारी, सबसे भिड़ने का माद्दा रखते थे हालांकि घर काफी दूर होने के कारण रोज 5-10 मिनट का लफड़ा हो ही जाया करता था वो अलग बात है कि कार्यालय से घर पहुंचते पहुंचते Big Boss छूट ही जाता था , फिर भी सीमित संसाधनों और सीमित कार्यबल के बावजूद कार्यालय सुचारू रूप से चल रहा था और अच्छा बिजनेस दे रहा था । पब्लिक और कर्मचारी दोनों के वे भगवान थे, लेकिन अधिकारियों की भृकुटि उन्हें देखते ही तन जाया करती थी, "ससुरा एक तो लेट आता है, ऊपर से नमस्ते वगरह करने भी नही आता, लगता है बैठे बैठे खाली सैलरी ही ले रहा है।" नाराजगी का आलम ये था कि मेडिकल बिल तो दूर CGHS कार्ड तक नही बना था । अत्यधिक कार्य के कारण कई बार गलती हो जाने के कारण सर्विस बुक में कुछ लाल Entries हो गई थी। और ACR में भी अधिकारी गण वर्मा जी को जानबूझ कर good से कम और यादव जी को Outstanding या Asset to the Department दिया करते थे। कालान्तर में नव गठित सरकार ने अच्छे कर्मचारियों को बढ़ावा देने और अकुशल कर्मचारियों को हटाने के उद्देश्य से ACR में Very Good का बेंचमार्क सेट किया और अधिकारियो से उन लोगो की सूची मांगी गई जिनकी सर्विस रिकार्ड बैंचमार्क के अनुरूप नही था।
अंततः वर्मा जी बाहर कर दिए गये और यादव जी प्रोमोशन पाके Thailand में Training के लिए भेजे गए है। कर्मचारी दुखी हैं, लेकिन कोई भी अपना सर्विस रिकॉर्ड अधिकारियों के हाथों Very Good के नीचे नही लाना चाहता।
बाकी विभाग तो वैसे भी चल रहा ही है।
--नीलेश मिश्रा

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कहानी 31:
एक समय की बात है, एक प्रतियोगी परीक्षा में नकल रोकने के उद्देश्य से परीक्षा केंद्र दूसरे - दूसरे जिलों में दे दिए गए, परीक्षार्थियों के घड़ी तो दूर की बात, जूते मोजे, बेल्ट, स्वेटर जैकेट इत्यादि नाना प्रकार के अहानिकर वस्तुयें भी उतरवा दी गई ताकि नकलविहीन परीक्षा कराई जा सके।
इसके बावजूद भी परीक्षा में बड़े पैमाने की नकल की बात सामने आई जब पता चला कि उत्तर भारत के 80% बन्दे सेलेक्ट हो गए है और वो भी दक्षिण भारतीय भाषाओं में फुल मार्क्स के साथ।
काफी खोजबीन के पश्चात एक खोजी पत्रकार महोदय इस नातीजे पर पहुंचे की जूते मोजे और बेल्ट चेक करने के चक्कर मे ID प्रूफ से फ़ोटो मिलान कराना भूल गए थे।
PS: उपरोक्त कहानी का PNB प्रकरण से कोई लेना देना नही है।
--निलेश मिश्रा

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कहानी 32:
बात उन दिनों की है जब छठवाँ वेतन आयोग आने ही वाला था और जोर शोर से चर्चा हो रही थी कि अच्छा काम करने वाले सरकारी कर्मचारियों के लिए Incentive की व्यवस्था की जाएगी ताकि उनका मनोबल बढ़ सके (खैर वो दिन कभी नही आया)। बहरहाल दिल्ली में बैठे किसी विभाग के नीति नियंताओ ने मंत्री जी को प्रसन्न करने के लिए छोटी सी इन्सेन्टिव योजना का प्रारम्भ किया जिसके अंतर्गत कोई आर्टिकल की कंप्यूटर में data एंट्री करने पर 50 पैसा इन्सेन्टिव मिलेगा। इस योजना का कोई खास फर्क तो वैसे भी नही पड़ने वाला था क्योंकि कर्मचारियों के बिना काम के हजारों के वेतन के सामने 50 पैसे की जद्दोजहद बहुत कमजोर पड़ गई। इसी बीच प्रवेश होता है सरकारी रोजगार का मोह रखने वाले अतियोग्य नई पीढ़ी के किरदारों का जिंनमे से एक ने इसे अच्छी Opportunity समझा और शुरू हुआ मेहनत का दौर जिसमे प्रथम चरण में उसने "3 आर्टिकल से ज्यादा नही होगा , कल आना" को नकारते हुए सभी का सारा आर्टिकल की कंप्यूटर पे data एंट्री चालू की। पहले महीने जनाब का incentive 5000 पहुंच गया (तब 10000 वेतन हुआ करता था)। दूसरे चरण में जनाब ने विभाग की मार्केटिंग करना शुरू कर दिया और विभाग के कई potential ग्राहकों को जो विभाग की बदहाल सेवाओं से विचलित हो के निजी क्षेत्र के players की तरफ रुख किए थे, उन्हें आकर्षित करना शुरू किया और दिन में 12-13 घंटे काम कर कर के इन्सेन्टिव बिल 50000 पहुंचा दिया, वो अलग बात है कि इस प्रक्रिया में विभाग का revenue भुगतान किए गए इन्सेन्टिव का 2500 गुणा बढ़ गया था लेकिन बिल पास करने वाली Competent Authority की नजर में ये एक अनावश्यक वित्तीय भार था।
छठवे ही महीने जनाब का ट्रांसफर पोस्टिंग ऐसी जगह कर दी गई जहां दिन रात सिर्फ रिपोर्ट बनाना होता था और भाई साहब को यहां भी 12 घंटे काम करना पड़ता था क्योंकि Competent Authority के अनुसार "जब वहां इतना काम कर सकते हो तो यहां क्यों नही"।
--नीलेश मिश्रा
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