बात उन दिनों की है जब सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 लागू होने के चरण में था। बिजलीराम बिजली विभाग के अत्यंत कुशल कर्मचारी हुआ करते थे। काम चाहे कटिया मारने वालों को पहले ही छापा पड़ने की सूचना देने का हो, मीटर चोरी करवाने का हो या बिजली का अकल्पनीय फर्जी बिल भेजने का हो, इन क्षेत्रों में उनका कोई सानी नही था। यूं तो पद से वो चपरासी थे परंतु भौकाल में इंजीनियरों, SDO इत्यादि को भी मात देते थे। कालान्तर में एक आम आदमी ने शहर में आवास विकास योजना में प्लाट लिया और Boundry करवा के छोड़ दिया कि जब इधर बस्ती बसेगी तब बनवाया जाएगा। 5 साल बाद आम आदमी मकान बनवा के बिजली कनेक्शन लेने पहुंचा तो 3 दिन तो उसे पंजीकरण फार्म ही नही मिला। मिला तो जमा करने में 8 दिन दौड़ाया गया । फिर 3 महीने तक कभी "काम ज्यादा है कल आना", "अभी बाबू जी पान खा के थूकने गए हैं", "क्या बे बार बार चले आते हो फटीचर कहीं के" इत्यादि नाना प्रकार के कटु तीरों से टरकाया गया। फिर आम आदमी सभासद और 2-4 दबंगो को लेकर दफ्तर पहुँचा तो फ़ाइल वगरह आई। तब तक पता चला आम आदमी के उक्त मकान के नाम तो पहले से ही Commercial Connection है और उस पर 10 लाख का बिल बकाया है जो 20 सालो से नही चुकाया गया है। कहतें हैं कि दूध फटने की आवाज नही आती। लेकिन शायद दूध फट चुका था। सभासद और बाकी लोग ये सुनते ही वहां से कट लिए। आम आदमी क्या करता । इतने का तो मकान भी नही था। बहुत दौड़ धूप हुई।
"अरे भाई 5 साल पहले तो प्लाट लिया था, फिर बिल कहाँ से आ गया। औऱ कुछ नही तो मीटर कहाँ है" ।
पता चला कि आम आदमी पर ही मीटर चोरी की शिकायत दर्ज हो गई। फिर किसी सज्जन ने बिजलीराम से परिचय कराया। अच्छा खासा पैसा देकर भी तमाम जिल्लतें सहने के बाद आम आदमी का मामला settle हो गया। वह फिर भी खुश था क्योंकि ये सब भी मुकदमें में लगने वाले रुपये और समय के खर्च से कम ही था।
आज घर की छत पे लगे सोलर पैनल से चलते हुए TV पर जब वो उस विभाग के कर्मचारियों को निजीकरण के विरोध में सरकार विरोधी प्रदर्शन करते हुए देखता है तो उसका "वोट किसको देना है" का फैसला और भी दृढ़ हो जाता है।
"अरे भाई 5 साल पहले तो प्लाट लिया था, फिर बिल कहाँ से आ गया। औऱ कुछ नही तो मीटर कहाँ है" ।
पता चला कि आम आदमी पर ही मीटर चोरी की शिकायत दर्ज हो गई। फिर किसी सज्जन ने बिजलीराम से परिचय कराया। अच्छा खासा पैसा देकर भी तमाम जिल्लतें सहने के बाद आम आदमी का मामला settle हो गया। वह फिर भी खुश था क्योंकि ये सब भी मुकदमें में लगने वाले रुपये और समय के खर्च से कम ही था।
आज घर की छत पे लगे सोलर पैनल से चलते हुए TV पर जब वो उस विभाग के कर्मचारियों को निजीकरण के विरोध में सरकार विरोधी प्रदर्शन करते हुए देखता है तो उसका "वोट किसको देना है" का फैसला और भी दृढ़ हो जाता है।
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