This is a collection of Original Creation by Nilesh Mishra
कहानी 67 : इमरजेंसी
मई के दिन थे और संगम का शहर था। अल नीनो का प्रभाव अपने चरम पे था। खैर दो वक्त के दारू का जुगाड़ करने के लिए क्या गर्मी और क्या बरसात, दफ्तर तो जाना ही पड़ता है। बुझेमल भी बुझे मन से दफ्तर में कलम घिसाई कर रहे थे। बीच मे हमारा उनका सामना हुआ, थोड़ी गुफ्तगू हुई कि तभी अचानक भाईसाहब सशरीर गश खा कर गिर पड़े। तुरंत एम्बुलेंस बुला के नजदीकी सरकारी अस्पताल ले जाया गया। तब तक भाई साहब को भी थोड़ा बहुत होश आ गया और वो चलने फिरने और बात करने की स्थिति में आ चुके थे। अस्पताल पहुंचने पर पता चला कि ओपीडी में दिखाने की लाइन इतनी लम्बी थी कि अपना नम्बर बाद में आता और बिग बॉस का 15 वां संस्करण पहले आ जाता। ऊपर से कोई प्रौढ़ उम्र का चिकित्सक भी नजर नही आ रहा था, आधे से ज्यादा तो हमसे भी कम उम्र के थे। तब किसी विद्वान पुरुष ने सलाह दी कि चलो इमरजेंसी में दिखवा लिया जाए , वहां जल्दी दवा इंजेक्शन लगवा के प्राइवेट हॉस्पिटल में दिखाया जाएगा। इमरजेंसी में पहुंच के पता चला कि यहां हालात तो और बदतर हैं। पत्थर से बनी वेटिंग सीट पे तीमारदार अपने कथित रूप से गंभीर अवस्था वाले मरीजो को लगी ग्लूकोज की बोतल हाथ मे लेके लटकाए हुए थे। पंखो के दीदार को आंखे तरस रही थी। अब उसे इमरजेंसी वार्ड कहें या बरामदा, लेकिन पूरे बरामदे में लगा एकमात्र पंखा अपनी विद्युत चुम्बकीय शक्तियों से समस्त त्राहिमाम जनता जनार्दन को अपनी ओर खींच रहा था। वहां उपस्थित प्रत्येक मनुष्य उत्तर दक्षिण दिशा की ओर मुंह किये हुए था क्योंकि विपरीत दिशा में स्वच्छता अभियान को मुँह चिढ़ाता हुआ , आदिकाल से सफाई को तरसता शौचालय था जिससे उठने वाली गंध किसी भी युद्ध मे Bio-Chemical Weapon की तरह प्रयोग की जा सकती थी। केवल कोनो में ही भाई साहब को लिटाने की थोड़ी व्यवस्था थी लेकिन वहां भी लाल सलाम की अनन्त परतों में समाई निशानियां गर्दन और आंखों को ऊपर की ओर रहने को मजबूर कर रही थी। किशोर-कम-अल्पायु युवा चिकित्सकों के इलाज के तौर तरीकों से ऐसा प्रतीत हो रहा था कि जैसे वो मान के चल रहे हों कि यहां जो भी आया है वो सीधे परम् धाम को ही जाएगा। खैर भाई साहब को कोई इंजेक्शन लगा के आधे घण्टे वहीं इंतजार करने के लिए कहा गया। समस्त विद्वान पुरुषों की राय थी कि चलो आधे घण्टे किसी तरह से यहां झेल ले फिर अच्छे नामी अस्पताल ले चल कर दिखाया जाएगा। किंतु अचानक भाई साहब की हालत तेजी से बिगड़ने लगी। चिकित्सको से अनुनय विनय का कोई खास प्रभाव नही पड़ा क्योंकि उनके लिए भाई साहब बाकी मरीजों की तरह आम आदमी ही थे। हम लोग एक बेहद शक्तिशाली संस्था के अंग थे इसलिए स्थिति की गंभीरता को समझते हुए तुरंत संस्था में सन्देश प्रेषित किया गया। 10 मिनट के अंदर उस संस्था की असीम शक्तियों का अंदाजा हो चुका था जब पूरे अस्पताल में कई खाकी वस्त्र पहने भाई बंधु पहुचं गए और चिकित्सालय के फोन घनघनाने लगे। तुरंत 4-5 बहुप्रतीक्षित अनुभवी और प्रौढ़ चिकित्सको के दर्शन सुलभ हुए। पता नही कहाँ से Critical Emergency Room अस्तित्व में आ गया। बहरहाल भाई साहब अच्छी चिकित्सा से उसी अस्पताल में अगले शाम को ही स्वस्थ हो के डिस्चार्ज हो गए।
"अरे आप लोग पहले क्यों नही बताए कि आप फला संस्था से हैं"- डिस्चार्ज पेपर sign कर रहे चिकित्सक ने पूछा।
"पहले बता देते तो देख कैसे पाते
अपने संस्था की ताकत
और आम आदमी की लाचारी"
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नीलेश मिश्रा
मई के दिन थे और संगम का शहर था। अल नीनो का प्रभाव अपने चरम पे था। खैर दो वक्त के दारू का जुगाड़ करने के लिए क्या गर्मी और क्या बरसात, दफ्तर तो जाना ही पड़ता है। बुझेमल भी बुझे मन से दफ्तर में कलम घिसाई कर रहे थे। बीच मे हमारा उनका सामना हुआ, थोड़ी गुफ्तगू हुई कि तभी अचानक भाईसाहब सशरीर गश खा कर गिर पड़े। तुरंत एम्बुलेंस बुला के नजदीकी सरकारी अस्पताल ले जाया गया। तब तक भाई साहब को भी थोड़ा बहुत होश आ गया और वो चलने फिरने और बात करने की स्थिति में आ चुके थे। अस्पताल पहुंचने पर पता चला कि ओपीडी में दिखाने की लाइन इतनी लम्बी थी कि अपना नम्बर बाद में आता और बिग बॉस का 15 वां संस्करण पहले आ जाता। ऊपर से कोई प्रौढ़ उम्र का चिकित्सक भी नजर नही आ रहा था, आधे से ज्यादा तो हमसे भी कम उम्र के थे। तब किसी विद्वान पुरुष ने सलाह दी कि चलो इमरजेंसी में दिखवा लिया जाए , वहां जल्दी दवा इंजेक्शन लगवा के प्राइवेट हॉस्पिटल में दिखाया जाएगा। इमरजेंसी में पहुंच के पता चला कि यहां हालात तो और बदतर हैं। पत्थर से बनी वेटिंग सीट पे तीमारदार अपने कथित रूप से गंभीर अवस्था वाले मरीजो को लगी ग्लूकोज की बोतल हाथ मे लेके लटकाए हुए थे। पंखो के दीदार को आंखे तरस रही थी। अब उसे इमरजेंसी वार्ड कहें या बरामदा, लेकिन पूरे बरामदे में लगा एकमात्र पंखा अपनी विद्युत चुम्बकीय शक्तियों से समस्त त्राहिमाम जनता जनार्दन को अपनी ओर खींच रहा था। वहां उपस्थित प्रत्येक मनुष्य उत्तर दक्षिण दिशा की ओर मुंह किये हुए था क्योंकि विपरीत दिशा में स्वच्छता अभियान को मुँह चिढ़ाता हुआ , आदिकाल से सफाई को तरसता शौचालय था जिससे उठने वाली गंध किसी भी युद्ध मे Bio-Chemical Weapon की तरह प्रयोग की जा सकती थी। केवल कोनो में ही भाई साहब को लिटाने की थोड़ी व्यवस्था थी लेकिन वहां भी लाल सलाम की अनन्त परतों में समाई निशानियां गर्दन और आंखों को ऊपर की ओर रहने को मजबूर कर रही थी। किशोर-कम-अल्पायु युवा चिकित्सकों के इलाज के तौर तरीकों से ऐसा प्रतीत हो रहा था कि जैसे वो मान के चल रहे हों कि यहां जो भी आया है वो सीधे परम् धाम को ही जाएगा। खैर भाई साहब को कोई इंजेक्शन लगा के आधे घण्टे वहीं इंतजार करने के लिए कहा गया। समस्त विद्वान पुरुषों की राय थी कि चलो आधे घण्टे किसी तरह से यहां झेल ले फिर अच्छे नामी अस्पताल ले चल कर दिखाया जाएगा। किंतु अचानक भाई साहब की हालत तेजी से बिगड़ने लगी। चिकित्सको से अनुनय विनय का कोई खास प्रभाव नही पड़ा क्योंकि उनके लिए भाई साहब बाकी मरीजों की तरह आम आदमी ही थे। हम लोग एक बेहद शक्तिशाली संस्था के अंग थे इसलिए स्थिति की गंभीरता को समझते हुए तुरंत संस्था में सन्देश प्रेषित किया गया। 10 मिनट के अंदर उस संस्था की असीम शक्तियों का अंदाजा हो चुका था जब पूरे अस्पताल में कई खाकी वस्त्र पहने भाई बंधु पहुचं गए और चिकित्सालय के फोन घनघनाने लगे। तुरंत 4-5 बहुप्रतीक्षित अनुभवी और प्रौढ़ चिकित्सको के दर्शन सुलभ हुए। पता नही कहाँ से Critical Emergency Room अस्तित्व में आ गया। बहरहाल भाई साहब अच्छी चिकित्सा से उसी अस्पताल में अगले शाम को ही स्वस्थ हो के डिस्चार्ज हो गए।
"अरे आप लोग पहले क्यों नही बताए कि आप फला संस्था से हैं"- डिस्चार्ज पेपर sign कर रहे चिकित्सक ने पूछा।
"पहले बता देते तो देख कैसे पाते
अपने संस्था की ताकत
और आम आदमी की लाचारी"
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नीलेश मिश्रा
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