This is a collection of Original Creation by Nilesh Mishra
कहानी 76: नौकरी
कहानी 76: नौकरी
शाम का समय था। दफ्तर की घड़ी में साढ़े सात बज रहे थे। मैं साइड की कुर्सी पर बैठ कर बड़े साहब के आने का इन्तेजार कर रहा था। पूरे दफ्तर में लगभग सभी जा चुके थे बस अंदर खुले दरवाजे से एक सज्जन जिनकी उम्र रही होगी करीब 34-35 साल, काम करते हुए दिख रहे थे। उनकी टेबल बड़े साहब की टेबल से काफी छोटी और फाइलों का बंडल सापेक्षिक रूप से काफी बड़ा था। वो हर 5 मिनट में एक बार घड़ी की ओर देखते, तो कभी दरवाजे की ओर और फिर काम मे जुट जाते। तभी बड़े साहब आ गए औऱ मेरी उपस्थिति लगभग नजरअंदाज करते हुए अंदर कमरे में दाखिल हो गए।
"हाँ सक्सेना, कितना काम निपटा दिए" - बड़े साहब ने घुसते ही status लिया।
"सर सिर्फ एक फ़ाइल बची है बाकी 79 फ़ाईलें निपट गई हैं।"
"तो कितना टाइम और लगेगा"
"सर इसमें आधे घण्टे से ज्यादा लग जाएगा । सर वो आज जल्दी जाना था वाइफ को डॉक्टर को दिखाना था, उसकी हालत स्थिर नही हो पा रही है और अगर काम निपटाने के चक्कर मे पड़ा तो फिर क्लीनिक बन्द हो जाएगी" - सक्सेना जी ने रहम की गुजारिश की।
"अरे नही यार, नौकरी खाओगे क्या मेरी। ये आज ही होना जरूरी है। जल्दी निपटाओ और जाओ।" - बड़े साहब ने अपने चिर परिचित अंदाज में Access Denied का मैसेज display कर दिया।
"सर ये क्या बात हुई। छुट्टियां बची हुई होने के बावजूद आप छुट्टी नहीं देते, सुबह जल्दी बुला के रात देर तक बैठा के काम भी कराते हैं और आज मैं मजबूरी में थोड़ा जल्दी जाने के लिए बोल रहा हूँ तो उसमें भी मना।"
"अरे भांग खाए हो क्या, कैसे बात कर रहे हो मुझसे। सस्पेंड हो जाओगे फिर समझ आ जाएगा। काम जल्दी निपटाओ और जाओ मैने कब रोका है। अब पिछले 3 हफ्ते से कभी तुम्हारे पिता बीमार रहते है कभी बीवी, तो मै कब तक ऑफिस का काम suffer करवाऊं। नौकरी मिल गई है तुम्हे उसी का धनभाग मनाओ वरना बाहर न जाने कितने बेरोजगारों की फौज घूम रही है। काम जल्दी से निपटाओ और जाओ। इससे ज्यादा मैं कुछ नही कर सकता।" - बड़े साहब अपना फरमान सुना के बाहर निकल आए। इस बार मेरे ऊपर उनकी दृष्टि पड़ी तो "तुम कल सुबह आना , आज बहुत rush था" कह कर अपने गंतव्य की ओर चल दिए।
अगले दिन मैं जल्दी ही पहुंच गया क्योंकि मैं already 3 दिन से "बहुत काम है, और करने वाले बहुत कम है" का डायलाग सुन सुन कर पक चुका था।
दफ्तर पहुंच कर पता चला बड़े साहब गुस्से से तिलमिला रहे थे।
"कह के गया था काम निपटा के जाना और इसने न काम पूरा किया न अभी तक आया। आज तो मैं इसके खिलाफ कार्यवाही कर के रहूँगा" - बड़े साहब का पारा सातवे आसमान पर था।
"सर सक्सेना जी का नम्बर लग गया है लीजिए बात कीजिये" - बड़े साहब का मातहत जो काफी देर से बड़े साहब के फ़ोन लगाने वाले कार्य को पूरी निष्ठा से अंजाम दे रहा था, को सक्सेना जी से सम्पर्क स्थापित करने में सफलता मिल ही गई । लेकिन चूंकि मातहत लाउडस्पीकर बन्द करना भूल गया इसलिए दूसरी तरफ की आवाज सुनाई दे रही थी।
"नौकरी करनी है या नही तुमको , कहाँ हो तुम... हेलो, हेलो, सुन रहे हो या नही"
30 सेकंड की खामोशी के बाद उधर से आवाज आई
"नही करनी नौकरी" - इस आवाज में गहराई औऱ असीम गंभीरता थी
"क्या...."
"मेरी बीमार बीवी नही रही, क्या करूंगा मैं ऐसी नौकरी रख कर भी......" और इसके बाद सिर्फ फफक फफक कर रोने की 10 सेकण्ड आवाज आई औऱ फोन कट गया। बड़े साहब धम्म से अपनी कुर्सी पर बैठ गए। शायद अपराध बोध ने उन्हें जकड़ लिया था या काम न हो पाने से वो अपनी नौकरी खतरे में सोच कर शॉक में आ गए थे।
बहरहाल मुझे समझ आ चुका था कि आज भी मेरा काम नही होगा।
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नीलेश मिश्रा
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