This is a collection of Original Creation by Nilesh Mishra
कहानी 81: बुद्धिजीवी
ट्रेन के स्लीपर डिब्बे का दृश्य। दोपहर का समय।
ट्रेन के स्रोत स्टेशन से निकले 4 घंटे व्यतीत हो चुके थे और काफी लोगो की मोबाइल की चार्जिंग अब अंतिम सांसे गिन रही थी। शयनयान में लगे चार्जिंग पॉइंट्स आम दिनों की तरह ही खराब थे। स्क्रीन से आंखे हटाते हुए लोग अब एक दूसरे से बात करने के मूड में आ चुके थे। बस इन्तेजार था Ice-Breaker का। तभी एक सज्जन बोल पड़े - "लग रहा है अब युद्ध होगा। ये गवर्नमेन्ट कुछ कर के रहेगी"
दूसरे सज्जन ने भी सहमति जताते हुए कहा-" एकदम। उन सालों को सबक सिखाये बिना नही रहने देना चाहिए।"
तभी एक बुद्धिजीवी महोदय ने व्यंग्यात्मक लहजे में आक्षेप किया -"आपको पता भी है युद्ध की विभीषिका कितनी भयावह होती है। सैनिक सिर्फ उस तरफ के नही मरते, इस तरफ़ के भी मरते हैं। और इसके कितने Socio-Economic Effects होते हैं आपको पता भी है। आर्थिक मंदी, उद्योग धंधों का चौपट होना, मुद्रा स्फीति में वृद्धि से महंगाई की मार, देश की आर्थिक साख की बैंड बज जाती है। कभी सिविल सर्विसेज की तैयारी किये होते तो ऐसी बात नही कर रहे होते आप।"
दूसरे सज्जन - "तो आप क्या चाहते हैं, वो हमारे लोगों को ऐसे ही पीठ में छुरा भोंकते रहें और हम चुपचाप बैठे रहें। नही।हम सब देशभक्त हैं और खून खौलता है हमारा भी।"
एक दूसरे बुद्धिजीवी सज्जन बोल पड़े - "भाई साहब मैं बोलूंगा तो आप अभी बुरा मान जाएंगे लेकिन जो कह रहा हूँ है एकदम खरा सच। ये देशभक्ति, राष्ट्रवाद ये सब Right Wingers के फैलाये चोंचले हैं, सब वोट पाने के लिए लोगों की भावनाओ के साथ खेलते हैं। ये Globalization का युग है। यहां अकेला देश चना नही फोड़ सकता। सरकार और प्रशासन के लिए लोग सिर्फ एक Number हैं Number। मेरे हिसाब से तो सेना के रखरखाव पर इतना खर्च करने से अच्छा है स्वास्थ्य और शिक्षा पर बजट खर्च किया जाए तो ज्यादा बढ़िया रहेगा। "
पहले सज्जन -"भाई साहब आप बहुत पढ़े लिखे मालूम पड़ते हैं , आपकी भावनाएं शायद........."
अचानक भड़ाम की तेज आवाज होती है। और भयानक सन्नाटा छा जाता है।
15 मिनट बाद पहले बुद्धिजीवी महोदय की आंख धीरे धीरे खुलती है और चीख पुकार की आवाज धीरे धीरे तेज रूप धारण कर लेती है। वो अपने आपको खून और इंसानी मांस के लोथड़ों के बीच पाते हैं। उनके हाथ मे एक तीसरा अंगभंगित हाथ होता है जो उनका है या नही , ये उन्हें थोड़ी देर तक मालूम ही नही चलता। उनके ठीक आगे खून से लथपथ एक सर पड़ा है जिसके धड़ का कोई अता पता नही है।
3 महीने बाद । हॉस्पिटल का दृश्य।
बुद्धिजीवी सज्जन डिस्चार्ज होकर परिवारजनों के साथ घर जा रहे हैं। शायद उन्हें अहसास हो चुका है कि स्वास्थ्य , शिक्षा और इकॉनमी राष्ट्र और राष्ट्रवाद के संरक्षण में ही फल फूल सकते हैं लेकिन अफसोस एक पैर गवाने के बाद।
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नीलेश मिश्रा
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