This is a collection of Original Creation by Nilesh Mishra
कहानी 89 : साहब का चश्मा
बात काफी दिनों पहले की है। तब देश मे 3G स्पेक्ट्रम धीरे धीरे अपने चक्षुओ को खोलने के फेस में था। पांडुरंग नया रंगरूट था और स्वाभाविक रूप से अधिक कार्य करता था - सो चुनाव ड्यूटी में झोंक दिया गया। चुनाव खत्म हुए तो किसी तरह समय निकाल के बिल बनाया और सबमिट करने प्रशासनिक कार्यालय पहुंचा। वहां पहुंचने पर उसे रेड्डी जी ने "अरे यार अभी बाद में लाना ये। आज नए साहब आए हैं, जरा उनकी वेलकम पार्टी तो हो जाने दो" - कह कर टरका दिया। शतरंज के खेल में प्यान्दा बेचारा एक कदम के अलावा चल भी क्या सकता है। खैर एक महीने बाद पांडुरंग फिर बिल लेकर पहुंचा तो पता चला साहब का बेटा नेपाल से साहब के लिए जो नया चश्मा लेकर आया था वो कार्यालय परिसर में ही कहीं गुम हो गया है और नीचे से लेकर ऊपर तक पूरा महकमा उसे ढूंढने में लगा हुआ है। सब अपनी दराज में, मेज के नीचे, दरवाजे के पीछे, पंखे के ऊपर, कूलर के अंदर हर तरफ पूरी निष्ठा के साथ वो अमूल्य चश्मा ढूंढने में जुटे हुए थे जिसके ढूंढने वाले को साहब का खास होने का दर्जा मिल सकता था।
"रेड्डी जी वो बिल..." - पांडुरंग बुदबुदाए ।
"अरे यार देख नही रहे हो क्या मुसीबत आ गई है। अभी टाइम नही है। बाद में आना।" - रेड्डी जी ने खीजते हुए कहा।
"अम्म... कितनी बाद में .." - पांडुरंग जी अपना वाक्य पूरा कर पाते कि रेड्डी जी की तरेरती आंखों को देख चुपचाप वहां से निकल जाने मे ही उन्होंने अपनी भलाई समझी।
इधर पूरे परिसर में साहब का गायब चश्मा ही छाया हुआ था। घास के मैदान से मेन गेट होते हुए कुछ लोग बस अड्डे और रेलवे स्टेशन तक पहुंच गए - चश्मा ढूंढने के लिए। पूरे एक पखवाड़े यही क्रम चला। चश्मा ढूंढो अभियान में सबने बढ़ चढ़ कर भाग लिया। पूरा सीसीटीवी फुटेज खंगाल डाला गया। सीबीआई जांच कराने तक कि बात हो गई। कुछ क्रांतिवीर लोग तो नेपाल तक पहुंच गए कि मिला तो ठीक वरना वो कोहिनूर चश्मा वहीं से खरीद लाएंगे।
इस कोलाहल की समाप्ति पर महीने भर बाद पांडुरंग जी फिर बिल लेकर पहुंच गए।
"रेड्डी जी आपने कहा था बाद में लाना तो मैं ये ले आया हूँ अब!"
"तुम्हारे पास कोई काम धंधा नही है क्या। जब देखो तब बिल बिल बिल। ऐसी जगह फेंकवा दूंगा की खाली बिलबिलाते रहोगे। फाड़ के फेंक दो अपने बिल को। यहाँ साहब का चश्मा नही मिला औऱ तुम नाक में दम करने चले आये। निकलो यहां से" - रेड्डी जी का पारा सांतवे आसमान पर था। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि चश्मा नही उनका कोई अपना खो गया हो।
खैर हाथी घोड़े ऊंट और वजीर से घिरा प्यान्दा कर भी क्या सकता है सिवाय सुरक्षित जगह खड़े रहने के।
इस चश्मा कांड के चक्कर मे ऑफिस की परफॉर्मेंस बहुत खराब हो गई। साहब पर गाज गिरी और उनका तबादला कर दिया गया। दूसरे नए साहब आ गए। सत्ता परिर्वतन और व्यवस्था परिर्वतन का दौर चला। अब रेड्डी और कम्पनी बाहर और पांडुरंग और अन्य नए रंगरूट नए साहब की कैबिनेट के अंग हो गए। फिर चुनाव आए और इस बार ड्यूटी रेड्डी जी की लगी।
कालांतर में रेड्डी जी बिल लेकर पहुंचे तो उस सीट पर पांडुरंग जी विद्यमान थे।
"रेड्डी जी आप बाद में आइयेगा। अभी बहुत बड़ी समस्या हो गई है" - पांडुरंग जी ने गम्भीर मुद्रा में कहा।
"क्या नए साहब का भी चश्मा गायब हो गया ?" - रेड्डी जी ने हतप्रभ होकर कहा।
"नही इस बार चश्मा मिल गया है लेकिन साहब नही मिल रहे" - पांडुरंग जी ने उत्तर दिया।
"अच्छा सुनिए" - वापस जाते हुए रेड्डी जी को पांडुरंग जी ने आवाज दी।
"हाँ" - रेड्डी जी ने आशा भरी नजरों से देखा।
"रजिस्ट्री से बिल भेजना तो जल्दी काम हो जाएगा, ये मेरा Personal Experience है।" - पांडुरंग जी ने विजय मुस्कान के साथ चुटकी ली।
प्यान्दा कमजोर होता है लेकिन तिरछा मारता है और जब अंतिम कतार में पहुंच जाता है तो वही वजीर बन जाता है।
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नीलेश मिश्रा
कहानी 89 : साहब का चश्मा
बात काफी दिनों पहले की है। तब देश मे 3G स्पेक्ट्रम धीरे धीरे अपने चक्षुओ को खोलने के फेस में था। पांडुरंग नया रंगरूट था और स्वाभाविक रूप से अधिक कार्य करता था - सो चुनाव ड्यूटी में झोंक दिया गया। चुनाव खत्म हुए तो किसी तरह समय निकाल के बिल बनाया और सबमिट करने प्रशासनिक कार्यालय पहुंचा। वहां पहुंचने पर उसे रेड्डी जी ने "अरे यार अभी बाद में लाना ये। आज नए साहब आए हैं, जरा उनकी वेलकम पार्टी तो हो जाने दो" - कह कर टरका दिया। शतरंज के खेल में प्यान्दा बेचारा एक कदम के अलावा चल भी क्या सकता है। खैर एक महीने बाद पांडुरंग फिर बिल लेकर पहुंचा तो पता चला साहब का बेटा नेपाल से साहब के लिए जो नया चश्मा लेकर आया था वो कार्यालय परिसर में ही कहीं गुम हो गया है और नीचे से लेकर ऊपर तक पूरा महकमा उसे ढूंढने में लगा हुआ है। सब अपनी दराज में, मेज के नीचे, दरवाजे के पीछे, पंखे के ऊपर, कूलर के अंदर हर तरफ पूरी निष्ठा के साथ वो अमूल्य चश्मा ढूंढने में जुटे हुए थे जिसके ढूंढने वाले को साहब का खास होने का दर्जा मिल सकता था।
"रेड्डी जी वो बिल..." - पांडुरंग बुदबुदाए ।
"अरे यार देख नही रहे हो क्या मुसीबत आ गई है। अभी टाइम नही है। बाद में आना।" - रेड्डी जी ने खीजते हुए कहा।
"अम्म... कितनी बाद में .." - पांडुरंग जी अपना वाक्य पूरा कर पाते कि रेड्डी जी की तरेरती आंखों को देख चुपचाप वहां से निकल जाने मे ही उन्होंने अपनी भलाई समझी।
इधर पूरे परिसर में साहब का गायब चश्मा ही छाया हुआ था। घास के मैदान से मेन गेट होते हुए कुछ लोग बस अड्डे और रेलवे स्टेशन तक पहुंच गए - चश्मा ढूंढने के लिए। पूरे एक पखवाड़े यही क्रम चला। चश्मा ढूंढो अभियान में सबने बढ़ चढ़ कर भाग लिया। पूरा सीसीटीवी फुटेज खंगाल डाला गया। सीबीआई जांच कराने तक कि बात हो गई। कुछ क्रांतिवीर लोग तो नेपाल तक पहुंच गए कि मिला तो ठीक वरना वो कोहिनूर चश्मा वहीं से खरीद लाएंगे।
इस कोलाहल की समाप्ति पर महीने भर बाद पांडुरंग जी फिर बिल लेकर पहुंच गए।
"रेड्डी जी आपने कहा था बाद में लाना तो मैं ये ले आया हूँ अब!"
"तुम्हारे पास कोई काम धंधा नही है क्या। जब देखो तब बिल बिल बिल। ऐसी जगह फेंकवा दूंगा की खाली बिलबिलाते रहोगे। फाड़ के फेंक दो अपने बिल को। यहाँ साहब का चश्मा नही मिला औऱ तुम नाक में दम करने चले आये। निकलो यहां से" - रेड्डी जी का पारा सांतवे आसमान पर था। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि चश्मा नही उनका कोई अपना खो गया हो।
खैर हाथी घोड़े ऊंट और वजीर से घिरा प्यान्दा कर भी क्या सकता है सिवाय सुरक्षित जगह खड़े रहने के।
इस चश्मा कांड के चक्कर मे ऑफिस की परफॉर्मेंस बहुत खराब हो गई। साहब पर गाज गिरी और उनका तबादला कर दिया गया। दूसरे नए साहब आ गए। सत्ता परिर्वतन और व्यवस्था परिर्वतन का दौर चला। अब रेड्डी और कम्पनी बाहर और पांडुरंग और अन्य नए रंगरूट नए साहब की कैबिनेट के अंग हो गए। फिर चुनाव आए और इस बार ड्यूटी रेड्डी जी की लगी।
कालांतर में रेड्डी जी बिल लेकर पहुंचे तो उस सीट पर पांडुरंग जी विद्यमान थे।
"रेड्डी जी आप बाद में आइयेगा। अभी बहुत बड़ी समस्या हो गई है" - पांडुरंग जी ने गम्भीर मुद्रा में कहा।
"क्या नए साहब का भी चश्मा गायब हो गया ?" - रेड्डी जी ने हतप्रभ होकर कहा।
"नही इस बार चश्मा मिल गया है लेकिन साहब नही मिल रहे" - पांडुरंग जी ने उत्तर दिया।
"अच्छा सुनिए" - वापस जाते हुए रेड्डी जी को पांडुरंग जी ने आवाज दी।
"हाँ" - रेड्डी जी ने आशा भरी नजरों से देखा।
"रजिस्ट्री से बिल भेजना तो जल्दी काम हो जाएगा, ये मेरा Personal Experience है।" - पांडुरंग जी ने विजय मुस्कान के साथ चुटकी ली।
प्यान्दा कमजोर होता है लेकिन तिरछा मारता है और जब अंतिम कतार में पहुंच जाता है तो वही वजीर बन जाता है।
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नीलेश मिश्रा
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