This is a collection of Original Creation by Nilesh Mishra
कहानी 101: फ़ाइल की आत्मकथा
मैं फाइल हूँ। सरकारी फ़ाइल। मुझे पूरा यकीन है कि कभी न कभी आपका पाला मेरे साथ जरूर पड़ा होगा। लोगों के मुँह से मेरे बारे में तमाम तरह की बातें सुनने को मिलती होंगी। लेकिन आज आप मेरी कहानी मेरी ही जुबानी सुनेंगे।
यह सफर शुरू होता है एक हताश व्यक्ति दीपू के ईमेल से। दीपू अपनी ईमेल में लिखता है कि वो एक गरीब आदमी है। रोजी रोटी के चक्कर में गृह जनपद से 600 किलोमीटर दूर दूसरे राज्य में काम करता था लेकिन अब काम छूट जाने के कारण यहां रहने को कोई कारण नही रह गया है। इसलिए अब वो अपने घर जाना चाहता है। उसके पास लगभग सारे पैसे खत्म हो गए हैं। बस ट्रेन की कोई व्यवस्था नहीं है इसलिए वो घर के लिए आज पैदल ही निकल रहा है। अगर सरकार तक ये संदेश पहुँच जाए तो कृपया मदद करें।
ईमेल सरकारी दफ्तर में बाद में पहुंचता है, मीडिया में पहले सुर्खियों में छा जाता है। एक निजी न्यूज चैनल के प्राइम टाइम न्यूज में आते ही सेक्शन अफसर के CUG नम्बर पर घनाघन घण्टियाँ बजने लगती हैं। आनन फ़ानन में रात 8 बजे शिकायत अनुभाग खुलवाया जाता है।
लेकिन ईमेल का पासवर्ड सेक्शन अफसर और उनके साथ उपस्थित दफ्तर वालों को नही पता होता है। ईमेल खोलने और प्रिंट निकलने का काम जावेद करता है जो नया बाबू है और घर पहुंचते ही फोन स्विच ऑफ़ करके बैठ जाता है। इधर सेक्शन अफसर परेशान हैं क्योंकि साहब रास्ते में हैं और किसी भी वक़्त आते होंगे। तुरंत HR सेक्शन के सेक्शन अफसर से सम्पर्क स्थापित किया जाता है। फोन पर काफी गर्मा गर्म बहस के बाद शिकायत अनुभाग के सेक्शन अफसर थोड़ा चैन की सांस लेते हैं और स्टाफ को बताते हैं कि थोड़ी देर में HR सेक्शन खुल जाएगा फिर वहां से एड्रेस लेकर जावेद को दफ्तर तक लाया जाएगा। 2 घंटे बाद जावेद का एड्रेस लेकर तुरंत अर्दली को 2 कांस्टेबलों के साथ उसके घर भेजा जाता है। इस बीच साहब दफ्तर आ चुके हैं और डांट फटकार का कार्यक्रम चालू है। उधर खाकी वर्दी वालों को इतनी रात गए जावेद के घर दरवाजा खटखटाते देख मोहल्ले वालों के माथे पर बल पड़ने लगता है कि कहीं कोई जमाती तो नही है यहां। हैरान परेशान जावेद अर्दली से हाल खबर सुन, सेक्शन अफसर को फोन मिलाता है जहाँ थोड़ी गाली खाने के बाद उसे दफ्तर आने का फरमान सुनाया जाता है। मौके की नजाकत भांपते हुए जावेद घर से दफ्तर के लिए निकल पड़ता है।
4 घण्टे बीत चुके हैं। टीवी डिबेट चालू होते ही नई नई थ्योरियां जनता के सामने आने लगती हैं। टीवी पर कुछ सज्जन सरकार को कठघरे में खड़े करते हुए दिखते हैं तो वहीं कुछ विद्वान "गरीब आदमी ईमेल कैसे कर सकता है" तर्क के साथ इसे विपक्ष द्वारा फैलाया गया प्रोपेगैंडा करार दे देते हैं।
जावेद के दफ्तर पहुंचते ही बड़े साहब की घुड़की "नौकरी प्यारी है या नही। इतनी बड़ी लापरवाही!" सुनते ही उसे समझ आ जाता है कि सीनियर्स द्वारा अपनी नाकामी छुपाने के लिए बड़े साहब के कान भरे जा चुके हैं। सहस्रों बार "Sorry Sir" मन्त्र के उच्चारण के साथ ही, जावेद ईमेल खोल कर दीपू का कथित ईमेल पत्र का प्रिंटआउट निकाल कर, पत्राचार रजिस्टर में उसकी एंट्री करता है और उस पत्र को एक नये फ़ाइल कवर में टैग करके फाइल के ऊपर शिकायत फाइल संख्या और तिथि अंकित कर नोटशीट में अपना कमेंट लिख कर सेक्शन अफसर को हैंडओवर कर देता है।
और इस तरह मेरा जन्म होता है।
सेक्शन ऑफिसर महोदय मुझे अपने हाथों में लेकर गौर से निहारते हैं और फिर एक पेज ऐड करते हैं जिसमे वो लिखते हैं - "चूंकि शिकायतकर्ता दूसरे राज्य की सीमा में है अतः इस शिकायत को उक्त राज्य के सम्बंधित विभाग में भेजा जाए" और साहब उसे approve करके मुसीबत से इतिश्री कर लेते हैं। रातों रात मैं दूसरे राज्य के सम्बंधित विभाग में पहुंचा दी जाती हूँ। सुबह उठते ही पता चलता है कि पूरे देश में मेरी वजह से कोहराम मचा हुआ है। दोनों राज्यों में अलग अलग पार्टियों की सरकार है और दोनों के जनप्रतिनिधि मेरा नाम लेकर एक दूसरे की टांग खींच रहे हैं।
"आदमी इनके राज्य का है और उसकी समस्या का निराकरण करने की जिम्मेदारी ये हम पर डाल रहे हैं।"
"ये देखिए, ऐसे संवेदनशील मुद्दों पर भी ये राजनीति से बाज नही आ रहे हैं। हमारे राज्य में आपका आदमी होता तो हम उसे सकुशल उसके घर छोड़ने का काम पहले करते"
इस बीच मुझे कुछ और पन्ने खिला पिला कर पुनः पहले वाले दफ्तर में स्थानांतरित कर दिया जाता है। चूंकि मुद्दा ज्यादा तूल पकड़ चुका है इसलिए बड़े साहब का आदेश है कि मामले को जल्द से जल्द सुलझाया जाए। अब मैं एक साथ परिवहन, पुलिस, खाद्य और स्वास्थ्य विभाग की संयुक्त धरोहर बन चुकी हूं। खाने का सामान और मेडिकल फैसिलिटी से युक्त परिवहन विभाग की एक गाड़ी को पुलिस की एक सर्च टीम के साथ दूसरे राज्य की ओर रवाना किया जाता है ताकि दीपू को ढूंढ कर उसे सकुशल उसके घर पहुंचाया जा सके। मुझे लगता है अब मेरे जन्म का उद्देश्य पूर्ण हो गया है।
किंतु ये क्या! इस कदम को राज्य के जनप्रतिनिधि द्वारा अपना मास्टर स्ट्रोक बताते ही दूसरे राज्य के खेमे में हलचल मच जाती है और अब वो मेरे द्वारा जवाबी कार्यवाही की रूपरेखा तय करने में लग जाते हैं। गाड़ी के दूसरे राज्य की सीमा पर पहुंचते ही उसे वहां के पुलिस दल द्वारा रोक लिया जाता है तथा अंतरराज्यीय परमिट न होने के कारण गाड़ी को वापस लौटने का निर्देश दिया जाता है। अब दूसरे राज्य की सरकार दीपू के घर वापसी का पूरा जिम्मा उठाने की घोषणा कर देती है।
राजनीतिक सरगर्मियां मेरे शरीर के आकार में उत्तरोत्तर वृद्धि करती जाती हैं और एक टाइम ऐसा भी आता है जब दो राज्यों के बीच के विवाद को सुलझाने के लिए केंद्र सरकार की मदद लेने का प्रस्ताव बनता है ताकि रेल की मदद से दीपू की घर वापसी हो सके। अब मैं रेल मंत्रालय पहुंच चुकी हूं जहाँ दीपू के पाए जाने के संभावित क्षेत्र का नक्शा संलग्न करके नोटशीट पर यह अंकित किया जाता है कि उक्त क्षेत्र के रेल मार्ग के अंतर्गत न आने के कारण मदद सम्भव नहीं है।
ईधर सोशल मीडिया पर हर पार्टी की IT Team इस मुद्दे पर बढ़ रहे जनाक्रोश पर लगातार नजर बनाए हुए है। कुछ क्रांतिवीरों द्वारा दीपू की कथित पैदल चलते हुए फ़ोटो शेयर करने के बाद देश की जनता अत्यंत उग्र हो उठती है। कुछ खोजी पत्रकार उस फ़ोटो के आधार पर दीपू के गांव उसके परिवार का इंटरव्यू लेने तक पहुंच जाते हैं। बाद में पता चलता है कि वह फ़ोटो तीन वर्ष पूर्व धूप में पैदल चल रहे एक कबाड़ी वाले की है जिसे एक विदेशी पत्रकार ने पुलित्जर पाने की लालसा से खींचा था।
मेरा विकास जारी है। मुझे पता है कि अब ये मामला कभी भी कोर्ट के चक्कर में फंस सकता है। लेकिन यही मेरे भय का सबसे बड़ा कारण भी है क्योंकि इसके सुलझने से पहले दीपू पैदल प्लूटो तक पहुंच जाएगा। फाइल हूँ तो क्या हुआ, दया और करुणा तो मेरे अंदर भी है।
आश्चर्य की बात है कि हर छोटे बड़े नीतिगत मुद्दों पर अपनी राय रखने वाले साधन संपन्न फिल्मी बुद्धिजीवी वर्ग इस ज्वलन्त मुद्दे से खुद को अलग रखते हैं क्योंकि उनके मुताबिक ये एक 'राजनीतिक' मसला है और इसमें उनका कोई भी हस्तक्षेप सियासी गर्मी को और बढ़ा सकता है।
खैर, जिसका डर था वही होता है। तीन दिन बीत जाने पर कोर्ट suo moto लेते हुए मुझे अपने यहां तलब कर लेती है और मामले में हुई लापरवाही को लेकर केंद्र और दोनों राज्यों को फटकार लगाती है। साथ ही दीपू को खोज कर 48 घण्टे के अंदर सकुशल घर पहुंचाने के लिए सीबीआई को निर्देशित कर दिया जाता है। इस फैसले से मैं काफी विस्मित हो उठती हूँ - सीबीआई को मामला दिए जाने से नहीं, त्वरित फैसला सुनाए जाने से।
अब मैं पहले से overburdened सीबीआई दफ्तर में एक और burden बन चुकी हूँ। चूंकि कोर्ट का timebound आदेश है अतः पूरी टीम दीपू के whereabouts ढूंढने में जुट जाती है। ईमेल की IP एड्रेस से टीम ईमेल भेजे जाने की लोकेशन का पता लगा लेती है। उक्त स्थान के लोकल इंटेलिजेंस यूनिट से सम्पर्क साध कर कड़ी मशक्कत के बाद टीम दीपू के मकान मालिक का पता लगा लेती है जहाँ से पता चलता है कि दीपू का नाम दीपू नही दीनानाथ उर्फ दीनू है। टीम को दीनू के गृह जनपद और गांव की जानकारी होते ही दो टीमें बना कर एक को दीनू के संभावित रास्ते पर भेज दिया जाता है जबकि दूसरी टीम को उसके घर के लिए रवाना कर दिया जाता है।
दीपू उर्फ दीनू के ईमेल से पांच दिन बीत जाने के कारण टीम को उसके जिंदा बचे होने की संभावना कम ही लगती है लेकिन फिर भी टीम की कोशिश यही रहती है कि कम से कम दीनू की लाश ही मिल जाए ताकि उसके परिजनों से नजर मिलाई जा सके। दो राज्यों की पुलिस और सीबीआई की टीम मिलकर भी दीनू की लाश नहीं ढूंढ पाते हैं। मैं गवाह बनती हूँ मानवता को शर्मसार होता देखने की।
दूसरी टीम दीनू के घर पहुंच के पाती है कि दीनू तो जिंदा है। पूछताछ में वह बताता है कि वो शहर से निकला तो पैदल ही था, पर 15-20 किमी चलने के बाद ही रास्ते में एक ट्रक मिल गया था और वो उसी से घर आ गया। "पैदल क्यों निकले थे" की बात पूंछे जाने पर वह बताता है कि कुछ दिन पहले उसका साथी भी ऐसे ही निकला था और घर पहुंच कर फ़ोन करके बताया था कि निकल लो रास्ते में साधन मिल जा रहा है, सो वो भी निकल लिया। "पैसे खत्म" होने और ईमेल भेजने की बात पर वह बताता है "साहब 3000 रुपये बचे रहे, वही से घर आ गया। शहर की सीमा पर पैदल चल रहे रह तब एक पत्रकार साहब मिल गए, बातों बातों में हमसे कहे कि वो हमको सरकार से पैदल चलने का मुआवजा दिलवाएंगे। हमसे हमरा नाम पूछ के अपने मोबाइल पर 10-15 मिनट कुछ किए और फिर कहे कि वो हमरी तरफ से सरकार को ईमेल भेज दीन हैं अब बस तुम पैदल चलते जाना, तुमको पैसा मिल जाएगा।"
"तो पैदल क्यों नहीं चले" की बात पूछे जाने पर दीनू बताता है "साहब पैसा भगवान जाने मिलता न मिलता पर पैदल चलता तो हमरा डेड बॉडी जरूर मिलता"।
टीम तब भी पूछती है कि न्यूज चैनलों पर हर तरफ तुम्हारी ही खबर चल रही है, फिर तुमने पुलिस से सम्पर्क क्यों नहीं किया। इस पर दीनू बताता है "साहब यहां पूरे गांव में दूरदर्शन आता है, उस पर तो कोउ अइसन न्यूज नही आया।"
दीनू की बातों से संतुष्ट होकर टीम उसका बयान मेरे अंदर रख कर अपनी फाइनल रिपोर्ट लगा देती है और फाइल क्लोज़ कर देती है। इधर बड़ी संख्या में टिड्डियों के दल का हमला मीडिया से दीपू उर्फ दीनू की खबर को चट कर देता है।
इस प्रकार मेरी आत्मकथा अब अपनी अंतिम परिणिति को प्राप्त कर लेती है। लेकिन उस पत्रकार का पता लगाने को अब मेरा फिर से पुनर्जन्म होगा और जन्म मृत्यु का ये चक्र यूहीं चलता रहेगा।
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नीलेश मिश्रा
मैं फाइल हूँ। सरकारी फ़ाइल। मुझे पूरा यकीन है कि कभी न कभी आपका पाला मेरे साथ जरूर पड़ा होगा। लोगों के मुँह से मेरे बारे में तमाम तरह की बातें सुनने को मिलती होंगी। लेकिन आज आप मेरी कहानी मेरी ही जुबानी सुनेंगे।
यह सफर शुरू होता है एक हताश व्यक्ति दीपू के ईमेल से। दीपू अपनी ईमेल में लिखता है कि वो एक गरीब आदमी है। रोजी रोटी के चक्कर में गृह जनपद से 600 किलोमीटर दूर दूसरे राज्य में काम करता था लेकिन अब काम छूट जाने के कारण यहां रहने को कोई कारण नही रह गया है। इसलिए अब वो अपने घर जाना चाहता है। उसके पास लगभग सारे पैसे खत्म हो गए हैं। बस ट्रेन की कोई व्यवस्था नहीं है इसलिए वो घर के लिए आज पैदल ही निकल रहा है। अगर सरकार तक ये संदेश पहुँच जाए तो कृपया मदद करें।
ईमेल सरकारी दफ्तर में बाद में पहुंचता है, मीडिया में पहले सुर्खियों में छा जाता है। एक निजी न्यूज चैनल के प्राइम टाइम न्यूज में आते ही सेक्शन अफसर के CUG नम्बर पर घनाघन घण्टियाँ बजने लगती हैं। आनन फ़ानन में रात 8 बजे शिकायत अनुभाग खुलवाया जाता है।
लेकिन ईमेल का पासवर्ड सेक्शन अफसर और उनके साथ उपस्थित दफ्तर वालों को नही पता होता है। ईमेल खोलने और प्रिंट निकलने का काम जावेद करता है जो नया बाबू है और घर पहुंचते ही फोन स्विच ऑफ़ करके बैठ जाता है। इधर सेक्शन अफसर परेशान हैं क्योंकि साहब रास्ते में हैं और किसी भी वक़्त आते होंगे। तुरंत HR सेक्शन के सेक्शन अफसर से सम्पर्क स्थापित किया जाता है। फोन पर काफी गर्मा गर्म बहस के बाद शिकायत अनुभाग के सेक्शन अफसर थोड़ा चैन की सांस लेते हैं और स्टाफ को बताते हैं कि थोड़ी देर में HR सेक्शन खुल जाएगा फिर वहां से एड्रेस लेकर जावेद को दफ्तर तक लाया जाएगा। 2 घंटे बाद जावेद का एड्रेस लेकर तुरंत अर्दली को 2 कांस्टेबलों के साथ उसके घर भेजा जाता है। इस बीच साहब दफ्तर आ चुके हैं और डांट फटकार का कार्यक्रम चालू है। उधर खाकी वर्दी वालों को इतनी रात गए जावेद के घर दरवाजा खटखटाते देख मोहल्ले वालों के माथे पर बल पड़ने लगता है कि कहीं कोई जमाती तो नही है यहां। हैरान परेशान जावेद अर्दली से हाल खबर सुन, सेक्शन अफसर को फोन मिलाता है जहाँ थोड़ी गाली खाने के बाद उसे दफ्तर आने का फरमान सुनाया जाता है। मौके की नजाकत भांपते हुए जावेद घर से दफ्तर के लिए निकल पड़ता है।
4 घण्टे बीत चुके हैं। टीवी डिबेट चालू होते ही नई नई थ्योरियां जनता के सामने आने लगती हैं। टीवी पर कुछ सज्जन सरकार को कठघरे में खड़े करते हुए दिखते हैं तो वहीं कुछ विद्वान "गरीब आदमी ईमेल कैसे कर सकता है" तर्क के साथ इसे विपक्ष द्वारा फैलाया गया प्रोपेगैंडा करार दे देते हैं।
जावेद के दफ्तर पहुंचते ही बड़े साहब की घुड़की "नौकरी प्यारी है या नही। इतनी बड़ी लापरवाही!" सुनते ही उसे समझ आ जाता है कि सीनियर्स द्वारा अपनी नाकामी छुपाने के लिए बड़े साहब के कान भरे जा चुके हैं। सहस्रों बार "Sorry Sir" मन्त्र के उच्चारण के साथ ही, जावेद ईमेल खोल कर दीपू का कथित ईमेल पत्र का प्रिंटआउट निकाल कर, पत्राचार रजिस्टर में उसकी एंट्री करता है और उस पत्र को एक नये फ़ाइल कवर में टैग करके फाइल के ऊपर शिकायत फाइल संख्या और तिथि अंकित कर नोटशीट में अपना कमेंट लिख कर सेक्शन अफसर को हैंडओवर कर देता है।
और इस तरह मेरा जन्म होता है।
सेक्शन ऑफिसर महोदय मुझे अपने हाथों में लेकर गौर से निहारते हैं और फिर एक पेज ऐड करते हैं जिसमे वो लिखते हैं - "चूंकि शिकायतकर्ता दूसरे राज्य की सीमा में है अतः इस शिकायत को उक्त राज्य के सम्बंधित विभाग में भेजा जाए" और साहब उसे approve करके मुसीबत से इतिश्री कर लेते हैं। रातों रात मैं दूसरे राज्य के सम्बंधित विभाग में पहुंचा दी जाती हूँ। सुबह उठते ही पता चलता है कि पूरे देश में मेरी वजह से कोहराम मचा हुआ है। दोनों राज्यों में अलग अलग पार्टियों की सरकार है और दोनों के जनप्रतिनिधि मेरा नाम लेकर एक दूसरे की टांग खींच रहे हैं।
"आदमी इनके राज्य का है और उसकी समस्या का निराकरण करने की जिम्मेदारी ये हम पर डाल रहे हैं।"
"ये देखिए, ऐसे संवेदनशील मुद्दों पर भी ये राजनीति से बाज नही आ रहे हैं। हमारे राज्य में आपका आदमी होता तो हम उसे सकुशल उसके घर छोड़ने का काम पहले करते"
इस बीच मुझे कुछ और पन्ने खिला पिला कर पुनः पहले वाले दफ्तर में स्थानांतरित कर दिया जाता है। चूंकि मुद्दा ज्यादा तूल पकड़ चुका है इसलिए बड़े साहब का आदेश है कि मामले को जल्द से जल्द सुलझाया जाए। अब मैं एक साथ परिवहन, पुलिस, खाद्य और स्वास्थ्य विभाग की संयुक्त धरोहर बन चुकी हूं। खाने का सामान और मेडिकल फैसिलिटी से युक्त परिवहन विभाग की एक गाड़ी को पुलिस की एक सर्च टीम के साथ दूसरे राज्य की ओर रवाना किया जाता है ताकि दीपू को ढूंढ कर उसे सकुशल उसके घर पहुंचाया जा सके। मुझे लगता है अब मेरे जन्म का उद्देश्य पूर्ण हो गया है।
किंतु ये क्या! इस कदम को राज्य के जनप्रतिनिधि द्वारा अपना मास्टर स्ट्रोक बताते ही दूसरे राज्य के खेमे में हलचल मच जाती है और अब वो मेरे द्वारा जवाबी कार्यवाही की रूपरेखा तय करने में लग जाते हैं। गाड़ी के दूसरे राज्य की सीमा पर पहुंचते ही उसे वहां के पुलिस दल द्वारा रोक लिया जाता है तथा अंतरराज्यीय परमिट न होने के कारण गाड़ी को वापस लौटने का निर्देश दिया जाता है। अब दूसरे राज्य की सरकार दीपू के घर वापसी का पूरा जिम्मा उठाने की घोषणा कर देती है।
राजनीतिक सरगर्मियां मेरे शरीर के आकार में उत्तरोत्तर वृद्धि करती जाती हैं और एक टाइम ऐसा भी आता है जब दो राज्यों के बीच के विवाद को सुलझाने के लिए केंद्र सरकार की मदद लेने का प्रस्ताव बनता है ताकि रेल की मदद से दीपू की घर वापसी हो सके। अब मैं रेल मंत्रालय पहुंच चुकी हूं जहाँ दीपू के पाए जाने के संभावित क्षेत्र का नक्शा संलग्न करके नोटशीट पर यह अंकित किया जाता है कि उक्त क्षेत्र के रेल मार्ग के अंतर्गत न आने के कारण मदद सम्भव नहीं है।
ईधर सोशल मीडिया पर हर पार्टी की IT Team इस मुद्दे पर बढ़ रहे जनाक्रोश पर लगातार नजर बनाए हुए है। कुछ क्रांतिवीरों द्वारा दीपू की कथित पैदल चलते हुए फ़ोटो शेयर करने के बाद देश की जनता अत्यंत उग्र हो उठती है। कुछ खोजी पत्रकार उस फ़ोटो के आधार पर दीपू के गांव उसके परिवार का इंटरव्यू लेने तक पहुंच जाते हैं। बाद में पता चलता है कि वह फ़ोटो तीन वर्ष पूर्व धूप में पैदल चल रहे एक कबाड़ी वाले की है जिसे एक विदेशी पत्रकार ने पुलित्जर पाने की लालसा से खींचा था।
मेरा विकास जारी है। मुझे पता है कि अब ये मामला कभी भी कोर्ट के चक्कर में फंस सकता है। लेकिन यही मेरे भय का सबसे बड़ा कारण भी है क्योंकि इसके सुलझने से पहले दीपू पैदल प्लूटो तक पहुंच जाएगा। फाइल हूँ तो क्या हुआ, दया और करुणा तो मेरे अंदर भी है।
आश्चर्य की बात है कि हर छोटे बड़े नीतिगत मुद्दों पर अपनी राय रखने वाले साधन संपन्न फिल्मी बुद्धिजीवी वर्ग इस ज्वलन्त मुद्दे से खुद को अलग रखते हैं क्योंकि उनके मुताबिक ये एक 'राजनीतिक' मसला है और इसमें उनका कोई भी हस्तक्षेप सियासी गर्मी को और बढ़ा सकता है।
खैर, जिसका डर था वही होता है। तीन दिन बीत जाने पर कोर्ट suo moto लेते हुए मुझे अपने यहां तलब कर लेती है और मामले में हुई लापरवाही को लेकर केंद्र और दोनों राज्यों को फटकार लगाती है। साथ ही दीपू को खोज कर 48 घण्टे के अंदर सकुशल घर पहुंचाने के लिए सीबीआई को निर्देशित कर दिया जाता है। इस फैसले से मैं काफी विस्मित हो उठती हूँ - सीबीआई को मामला दिए जाने से नहीं, त्वरित फैसला सुनाए जाने से।
अब मैं पहले से overburdened सीबीआई दफ्तर में एक और burden बन चुकी हूँ। चूंकि कोर्ट का timebound आदेश है अतः पूरी टीम दीपू के whereabouts ढूंढने में जुट जाती है। ईमेल की IP एड्रेस से टीम ईमेल भेजे जाने की लोकेशन का पता लगा लेती है। उक्त स्थान के लोकल इंटेलिजेंस यूनिट से सम्पर्क साध कर कड़ी मशक्कत के बाद टीम दीपू के मकान मालिक का पता लगा लेती है जहाँ से पता चलता है कि दीपू का नाम दीपू नही दीनानाथ उर्फ दीनू है। टीम को दीनू के गृह जनपद और गांव की जानकारी होते ही दो टीमें बना कर एक को दीनू के संभावित रास्ते पर भेज दिया जाता है जबकि दूसरी टीम को उसके घर के लिए रवाना कर दिया जाता है।
दीपू उर्फ दीनू के ईमेल से पांच दिन बीत जाने के कारण टीम को उसके जिंदा बचे होने की संभावना कम ही लगती है लेकिन फिर भी टीम की कोशिश यही रहती है कि कम से कम दीनू की लाश ही मिल जाए ताकि उसके परिजनों से नजर मिलाई जा सके। दो राज्यों की पुलिस और सीबीआई की टीम मिलकर भी दीनू की लाश नहीं ढूंढ पाते हैं। मैं गवाह बनती हूँ मानवता को शर्मसार होता देखने की।
दूसरी टीम दीनू के घर पहुंच के पाती है कि दीनू तो जिंदा है। पूछताछ में वह बताता है कि वो शहर से निकला तो पैदल ही था, पर 15-20 किमी चलने के बाद ही रास्ते में एक ट्रक मिल गया था और वो उसी से घर आ गया। "पैदल क्यों निकले थे" की बात पूंछे जाने पर वह बताता है कि कुछ दिन पहले उसका साथी भी ऐसे ही निकला था और घर पहुंच कर फ़ोन करके बताया था कि निकल लो रास्ते में साधन मिल जा रहा है, सो वो भी निकल लिया। "पैसे खत्म" होने और ईमेल भेजने की बात पर वह बताता है "साहब 3000 रुपये बचे रहे, वही से घर आ गया। शहर की सीमा पर पैदल चल रहे रह तब एक पत्रकार साहब मिल गए, बातों बातों में हमसे कहे कि वो हमको सरकार से पैदल चलने का मुआवजा दिलवाएंगे। हमसे हमरा नाम पूछ के अपने मोबाइल पर 10-15 मिनट कुछ किए और फिर कहे कि वो हमरी तरफ से सरकार को ईमेल भेज दीन हैं अब बस तुम पैदल चलते जाना, तुमको पैसा मिल जाएगा।"
"तो पैदल क्यों नहीं चले" की बात पूछे जाने पर दीनू बताता है "साहब पैसा भगवान जाने मिलता न मिलता पर पैदल चलता तो हमरा डेड बॉडी जरूर मिलता"।
टीम तब भी पूछती है कि न्यूज चैनलों पर हर तरफ तुम्हारी ही खबर चल रही है, फिर तुमने पुलिस से सम्पर्क क्यों नहीं किया। इस पर दीनू बताता है "साहब यहां पूरे गांव में दूरदर्शन आता है, उस पर तो कोउ अइसन न्यूज नही आया।"
दीनू की बातों से संतुष्ट होकर टीम उसका बयान मेरे अंदर रख कर अपनी फाइनल रिपोर्ट लगा देती है और फाइल क्लोज़ कर देती है। इधर बड़ी संख्या में टिड्डियों के दल का हमला मीडिया से दीपू उर्फ दीनू की खबर को चट कर देता है।
इस प्रकार मेरी आत्मकथा अब अपनी अंतिम परिणिति को प्राप्त कर लेती है। लेकिन उस पत्रकार का पता लगाने को अब मेरा फिर से पुनर्जन्म होगा और जन्म मृत्यु का ये चक्र यूहीं चलता रहेगा।
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नीलेश मिश्रा
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